December 23, 2024
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मानव गरिमा ब्यूरो
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काशीपुर। होली पर्व के उपरांत ऐतिहासिक सिद्धपीठ शीतला देवी माता मंदिर में वैशाख माह की शीतला अष्टमी तक जारी रहने वाली पूजा-अर्चना के तहत पहले दिन बुधवार को श्रद्धालुओं का सैलाब उमड़ा। हालांकि, बसौड़ा पूजन 2 अप्रैल को किया जाएगा। शीतला देवी माता मंदिर में ऋतु परिवर्तन से होने वाले हैजा, चेचक, चर्म रोगों से मुक्ति के लिए प्रत्येक वर्ष चैत्र मास की द्वितीया से विशेष पूजन की मान्यता है। मंदिर के प्रबंधक/पीठाधीश पं. संदीप मिश्रा ने बताया कि श्रद्धालु नारियल, कच्चा दूध, चना-मसूर की दाल, हल्दी, गुड़, आटा व सरसों तेल से माता शीतला की पूजा-अर्चना करते हैं। साथ ही बासी भोग में पुए व पूरी मां को अर्पित करते हैं। क्योंकि शीतला देवी को मां अन्नपूर्णा का रूप भी माना जाता है। उन्होंने बताया कि बसौड़ा पूजन के पीछे मान्यता है कि मां कहती हैं बासी भोजन मुझे ग्रहण कराएं तथा परिवार में आज से ताजा भोजन करना शुरू करें। इससे मनुष्य रोग मुक्त रहता है। पं. संदीप मिश्रा ने बताया कि मां की आराधना सोमवार, बुधवार व शुक्रवार को करना लाभप्रद माना गया है। हालांकि, पंजाबी समाज में मंगलवार को माता शीतला की आराधना करने का विधान है। शीतला अष्टमी तिथि और मुहूर्त बताते हुए उन्होंने कहा कि शीतला अष्टमी मंगलवार, 2 अप्रैल को है। शीतला अष्टमी पूजा मुहूर्त प्रातः 06:19 बजे से सायं 06:32 बजे तक है, जिसकी अवधि 12 घंटे 13 मिनट है। श्री मिश्रा के मुताबिक, स्कंद पुराण में माता शीतला के स्वरूप का वर्णन मिलता है। माता शीतला को देवी शक्ति का रूप माना गया है‌। शीतला देवी को बासी पकवानों का भोग लगाया जाता है। हर साल चैत्र महीने की कृष्ण पक्ष की सप्तमी और अष्टमी तिथि को शीतला देवी की पूजा की जाती है। शीतला माता को चेचक रोग की देवी भी कहते हैं। शीतला माता के पर्व को हिंदू समाज में बास्योड़ा नाम से जाना जाता है। इस पर्व के एक दिन पहले शीतला माता के भोग को तैयार किया जाता है और दूसरे दिन बासी भोग माता शीतला को चढ़ाया जाता है। माना जाता है कि शीतला देवी की पूजा अर्चना से चेचक रोग नहीं होता। छोटे बच्चों को चेचक से बचाने के लिए विशेषकर शीतला देवी की पूजा की जाती है। पं. संदीप मिश्रा बताते हैं कि स्कंद पुराण में शीतला माता से जुड़ी एक पौराणिक कथा का वर्णन मिलता है, जिसमें बताया गया है कि शीतला देवी का जन्म ब्रह्माजी से हुआ था। शीतला माता को भगवान शिव की अर्धांगिनी शक्ति का ही स्वरूप माना जाता है। पौराणिक कथा के अनुसार, देवलोक से देवी शीतला अपने हाथ में दाल के दाने लेकर भगवान शिव के पसीने से बने ज्वरासुर के साथ धरती लोक पर राजा विराट के राज्य में रहने आई थीं लेकिन, राजा विराट ने देवी शीतला को राज्य में रहने से मना कर दिया। राजा के इस व्यवहार से देवी शीतला क्रोधित हो गईं। शीतला माता के क्रोध की अग्नि से राजा की प्रजा के लोगों की त्वचा पर लाल लाल दाने हो गए। लोगों की त्वचा गर्मी से जलने लगी थी। तब राजा विराट ने अपनी गलती पर क्षमा मांगी। इसके बाद राजा ने देवी शीतला को कच्चा दूध और ठंडी लस्सी का भोग लगाया। तब माता शीतला का क्रोध शांत हुआ। तबसे माता देवी को ठंडे पकवानों का भोग लगाने की परंपरा चली आ रही है। स्कंद पुराण के अनुसार, देवी शीतला का रूप अनूठा है। देवी शीतला का वाहन गधा है। देवी शीतला अपने हाथ के कलश में शीतल पेय, दाल के दाने और रोगानुनाशक जल रखती हैं, तो दूसरे हाथ में झाड़ू और नीम के पत्ते रखती हैं। चौसठ रोगों के देवता, घेंटूकर्ण त्वचा रोग के देवता, हैज़े की देवी और ज्वारासुर ज्वर का दैत्य इनके साथी होते हैं। स्कंदपुराण के अनुसार, देवी शीतला के पूजा स्तोत्र शीतलाष्टक की रचना स्वयं भगवान शिव ने की थी।

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